Sunday 28 August 2016

उदय से अस्त होने की कहानी

आज जहां विश्वभर में लोकतंत्र के स्तंभ को मजबूत बनाने के लिए तानाशाही व्यवस्था को पूरी तरह से नेस्तनाबूद किया जा रहा है वहीं एक दौर ऐसा भी था जब इन्हीं तानाशाहों ने पूरे विश्व को अपनी मुठ्ठी में कर रखा था. जब हम किसी व्यक्ति को तानाशाह के नाम से संबोधित करते हैं तो उसका सीधा संबंध एक ऐसे व्यक्ति के नाम के साथ जुड़ जाता है जो अपनी करिश्माई नेतृत्व की बदौलत न केवल विश्व को अपने इशारों पर नचाता रहा बल्कि अपने नीतियों की बदौलत खुद को वह सबसे ऊपर मानता था. यहां जिक्र हो रहा है पूर्व जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर (Adolf Hitler) का.


बीसवीं सदी के सर्वाधिक चर्चित और संभवतः सर्वाधिक घृणित व्यक्तियों में से एक नाजी तानाशाह एडोल्फ हिटलर का जन्म 20 अप्रैल, 1889 को ऑस्ट्रिया में हुआ. उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई. पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए. कला विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह करने लगे. यही वह समय था जब हिटलर साम्यवादियों और यहूदियों से घृणा करने लगे. यह दौर विश्व युद्ध का दौर था जब हिटलर सभी काम को छोड़ कर सेना में भर्ती हो गए और फ्रांस के कई लड़ाइयों में उन्होंने भाग लिया.

1918 में जर्मनी की पराजय के बाद 1919 में हिटलर ने सेना छोड़ दी व नेशनल सोशलिस्टिक आर्बिटर पार्टी (नाजी पार्टी) का गठन कर डाला. इसका उद्देश्य साम्यवादियों और यहूदियों से सब अधिकार छीनना था क्योंकि उनकी घोषित मान्यता थी कि साम्यवादियों व यहूदियों के कारण ही जर्मनी की हार हुई. जर्मनी की हार को लेकर हिटलर के अंदर जो नफरत की भावना थी, वो हज़ारों जर्मन वासियों की भावना से मेल खाती थी. यही वजह है कि नाजी पार्टी के सदस्यों में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था.

प्रथम विश्व युद्ध हारने के बाद जर्मनी की आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी जिसके कारण नाजी दल के नेता हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों द्वारा देश की अर्थव्यस्था को ठीक करने की बात कही. पहले विश्व युद्ध से पहले उन्हें कोई नहीं जानता था लेकिन 1922 तक आते-आते उन्होंने एक विशाल जनसमर्थन को इकठ्ठा किया और बेहद शक्तिशाली व्यक्ति बनकर उभरे.


उन्होंने स्वास्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओं का शुभ चिह्र है. समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों का प्रचार जनता में किया. भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई. 1923 ई. में हिटलर ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया लेकिन इसमे वह कामयाब नहीं हो पाए. 20 फरवरी, 1924  को हिटलर पर “राष्ट्रद्रोह” का मुकदमा चलाया गया और पांच साल के कैद की सजा सुनाई गई.

हिटलर को कुल 13  महीने तक कैद में रखा गया. यहीं जेल में हिटलर ने अपनी पुस्तक “मीन कैम्फ” (मेरा संघर्ष) लिखी. हिटलर ने अपनी यह आत्मकथा उन सोलह प्रदर्शनकारी शहीदों को श्रद्धांजलि में समर्पित की है, जिन्होंने अपने देश की एकता के लिए संघर्ष करते हुए अपने ही देश के सैनिकों की गोलियों का सामना किया. इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि आर्य जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं इसलिए उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए. वह जर्मन नस्ल को दूसरी सभी नस्लों से बेहतर मानते थे.

जेल से रिहा होने के कुछ ही समय बाद हिटलर ने पाया कि जर्मनी भी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की मार झेल रहा है. आंकड़ों की मानें तो 1930-32 में जर्मनी में बेरोजगारी बहुत बढ़ गई थी. हिटलर ने जनता के असंतोष का फायदा उठाकर पुनः व्यापक लोकप्रियता हासिल की. उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया. 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली लेकिन 1933 में उन्हें जर्मनी का चांसलर बनने से कोई नही रोक सका. इसके बाद शुरू हुआ हिटलर का दमन चक्र. उन्होंने साम्यवादी पार्टी को अवैध घोषित कर दिया व यहूदियों के नरसंहार का सिलसिला शुरू कर दिया. तत्कालीन राष्ट्रपति की मृत्यु के बाद हिटलर ने स्वयं को राष्ट्रपति तथा सर्वोच्च न्यायाधीश भी घोषित कर डाला.

सत्ता हासिल करने के बाद हिटलर ने राष्ट्र को जोड़ने के लिए भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया. उन्होंने सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण देने का आदेश दिया. विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य लेकर हिटलर ने तमाम तरह की संधियों की अहवेलना करके पड़ोसी देशों पर आक्रमण कर दिए. जिसके फलस्वरूप 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध भड़क उठा.
शुरुआत में तो हिटलर को सफलता मिली लेकिन बाद में हिटलर के पांव उखड़ने लगे. अब तक जर्मनी की हार निश्चित हो गई थी. हिटलर भी अब हार महसूस करने लगा था. अंततः 30 अप्रैल, 1945 को हिटलर ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली.

उदय से अस्त होने की कहानी

आज जहां विश्वभर में लोकतंत्र के स्तंभ को मजबूत बनाने के लिए तानाशाही व्यवस्था को पूरी तरह से नेस्तनाबूद किया जा रहा है वहीं एक दौर ऐसा भी था जब इन्हीं तानाशाहों ने पूरे विश्व को अपनी मुठ्ठी में कर रखा था. जब हम किसी व्यक्ति को तानाशाह के नाम से संबोधित करते हैं तो उसका सीधा संबंध एक ऐसे व्यक्ति के नाम के साथ जुड़ जाता है जो अपनी करिश्माई नेतृत्व की बदौलत न केवल विश्व को अपने इशारों पर नचाता रहा बल्कि अपने नीतियों की बदौलत खुद को वह सबसे ऊपर मानता था. यहां जिक्र हो रहा है पूर्व जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर (Adolf Hitler) का.


बीसवीं सदी के सर्वाधिक चर्चित और संभवतः सर्वाधिक घृणित व्यक्तियों में से एक नाजी तानाशाह एडोल्फ हिटलर का जन्म 20 अप्रैल, 1889 को ऑस्ट्रिया में हुआ. उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई. पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए. कला विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह करने लगे. यही वह समय था जब हिटलर साम्यवादियों और यहूदियों से घृणा करने लगे. यह दौर विश्व युद्ध का दौर था जब हिटलर सभी काम को छोड़ कर सेना में भर्ती हो गए और फ्रांस के कई लड़ाइयों में उन्होंने भाग लिया.

1918 में जर्मनी की पराजय के बाद 1919 में हिटलर ने सेना छोड़ दी व नेशनल सोशलिस्टिक आर्बिटर पार्टी (नाजी पार्टी) का गठन कर डाला. इसका उद्देश्य साम्यवादियों और यहूदियों से सब अधिकार छीनना था क्योंकि उनकी घोषित मान्यता थी कि साम्यवादियों व यहूदियों के कारण ही जर्मनी की हार हुई. जर्मनी की हार को लेकर हिटलर के अंदर जो नफरत की भावना थी, वो हज़ारों जर्मन वासियों की भावना से मेल खाती थी. यही वजह है कि नाजी पार्टी के सदस्यों में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था.

प्रथम विश्व युद्ध हारने के बाद जर्मनी की आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी जिसके कारण नाजी दल के नेता हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों द्वारा देश की अर्थव्यस्था को ठीक करने की बात कही. पहले विश्व युद्ध से पहले उन्हें कोई नहीं जानता था लेकिन 1922 तक आते-आते उन्होंने एक विशाल जनसमर्थन को इकठ्ठा किया और बेहद शक्तिशाली व्यक्ति बनकर उभरे.


उन्होंने स्वास्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओं का शुभ चिह्र है. समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों का प्रचार जनता में किया. भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई. 1923 ई. में हिटलर ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया लेकिन इसमे वह कामयाब नहीं हो पाए. 20 फरवरी, 1924  को हिटलर पर “राष्ट्रद्रोह” का मुकदमा चलाया गया और पांच साल के कैद की सजा सुनाई गई.

हिटलर को कुल 13  महीने तक कैद में रखा गया. यहीं जेल में हिटलर ने अपनी पुस्तक “मीन कैम्फ” (मेरा संघर्ष) लिखी. हिटलर ने अपनी यह आत्मकथा उन सोलह प्रदर्शनकारी शहीदों को श्रद्धांजलि में समर्पित की है, जिन्होंने अपने देश की एकता के लिए संघर्ष करते हुए अपने ही देश के सैनिकों की गोलियों का सामना किया. इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि आर्य जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं इसलिए उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए. वह जर्मन नस्ल को दूसरी सभी नस्लों से बेहतर मानते थे.

जेल से रिहा होने के कुछ ही समय बाद हिटलर ने पाया कि जर्मनी भी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की मार झेल रहा है. आंकड़ों की मानें तो 1930-32 में जर्मनी में बेरोजगारी बहुत बढ़ गई थी. हिटलर ने जनता के असंतोष का फायदा उठाकर पुनः व्यापक लोकप्रियता हासिल की. उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया. 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली लेकिन 1933 में उन्हें जर्मनी का चांसलर बनने से कोई नही रोक सका. इसके बाद शुरू हुआ हिटलर का दमन चक्र. उन्होंने साम्यवादी पार्टी को अवैध घोषित कर दिया व यहूदियों के नरसंहार का सिलसिला शुरू कर दिया. तत्कालीन राष्ट्रपति की मृत्यु के बाद हिटलर ने स्वयं को राष्ट्रपति तथा सर्वोच्च न्यायाधीश भी घोषित कर डाला.

सत्ता हासिल करने के बाद हिटलर ने राष्ट्र को जोड़ने के लिए भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया. उन्होंने सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण देने का आदेश दिया. विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य लेकर हिटलर ने तमाम तरह की संधियों की अहवेलना करके पड़ोसी देशों पर आक्रमण कर दिए. जिसके फलस्वरूप 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध भड़क उठा.
शुरुआत में तो हिटलर को सफलता मिली लेकिन बाद में हिटलर के पांव उखड़ने लगे. अब तक जर्मनी की हार निश्चित हो गई थी. हिटलर भी अब हार महसूस करने लगा था. अंततः 30 अप्रैल, 1945 को हिटलर ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली.

Friday 26 August 2016

अभ्यास ही सफलता का मूलमंत्र है।

अध्यापक ने कहा – अभ्यास ही सफलता का मूलमंत्र है।

उस बालक ने इसे अपना गुरु मंत्र मान लिया और निश्चय किया कि अभ्यास के बल पर ही मैं एक दिन सबसे आगे बढकर दिखाऊँगा। बाल्यकाल से अध्यापकों द्वारा मंद बुद्धी और अयोग्य कहा जाने वाला ये बालक अपने अभ्यास के बल पर ही विश्व में आज सम्मान के साथ जाना जाता है। इस बालक को दुनिया आइंस्टाइन के नाम से जानती है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी मेहनत, हिम्मत और लगन से सफलता प्राप्त कर सकता है।

आइंस्टाइन का जन्म 14 मार्च 1879 को जर्मनी के यूम (Ulm) नगर में हुआ था। बचपन में उन्हे अपनी मंदबुद्धी बहुत अखरती थी। आगे बढने की चाह हमेशा उनपर हावी रहती थी। पढने में मन नहीं लगता था फिर भी किताब हाँथ से नहीं छोङते थे, मन को समझाते और वापस पढने लगते। कुछ ही समय में अभ्यास का सकारात्मक परिणाम दिखाई देने लगा। शिक्षक भी इस विकास से दंग रह गये। गुरु मंत्र के आधार पर ही आइंस्टाइन अपनी विद्या संपदा को बढाने में सफल रहे। आगे चल कर उन्होने अध्ययन के लिये गणित जैसे जटिल विषय को चुना। उनकी योग्यता का असर इस तरह हुआ कि जब कोई सवाल अध्यापक हल नहीं कर पाते तो वे आइंस्टाइन की मदद लेते थे।

गुरु मंत्र को गाँठ बाँध कर आइंस्टाइन सफलता की सीढी चढते रहे। आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से आगे की पढाई में थोङी समस्या हुई। परन्तु लगन के पक्के आइंस्टाइन को ये समस्या निराश न कर सकी। उन्होने ज्युरिक पॉलिटेक्निक कॉलेज में दाखिला ले लिया। शौक मौज पर वे एक पैसा भी खर्च नहीं करते थे, फिर भी दाखिले के बाद अपने खर्चे को और कम कर दिये थे। उनकी मितव्ययता का एक किस्सा आप सभी से साझा कर रहे हैं।

एक बार बहुत तेज बारिश हो रही थी। अल्बर्ट आइंस्टीन अपनी हैट को बगल में दबाए जल्दी-जल्दी घर जा रहे थे। छाता न होने के कारण भीग गये थे। रास्ते में एक सज्जन ने उनसे पूछा कि – “ भाई! तेज बारिश हो रही है, हैट से सिर को ढकने के बजाय तुम उसे कोट में दबाकर चले जा रहे हो। क्या तुम्हारा सिर नहीं भीग रहा है?

आइंस्टीन ने कहा –“भीग तो रहा है परन्तु बाद में सूख जायेगा, लेकिन हैट गीला हुआ तो खराब हो जायेगा। नया हैट खरीदने के लिए न तो मेरे पास न तो पैसे हैं और न ही समय।“

मित्रों, आज जहाँ अधिकांश लोग अपनी कृतिम और भौतिक आवश्यकताओं पर ही ध्यान देते रहते हैं, वे चाहें तो समाज या देश के लिये क्या त्याग कर सकते है,सीमित साधन में भी संसार में महान कार्य किया ज सकता है। आइंस्टीन इसका जीवंत उदाहरण हैं।

ज्युरिक कॉलेज में अपनी कुशाग्र बुद्धी जिसे उन्होने अभ्यास

के द्वारा अर्जित किया था, के बल पर जल्दी ही वहाँ के अध्यापकों को प्रभावित कर सके। एक अध्यापक ‘मिकोत्सी’ उनकी स्थीति जानकर आर्थिक मदद भी प्रारंभ कर दिये थे। शिक्षा पूरी होने पर नौकरी के लिये थोङा भटकना पङा तब भी वे निराशा को कभी पास भी फटकने नहीं दिये। बचपन में उनके माता-पिता द्वारा मिली शिक्षा ने उनका मनोबल हमेशा बनाए रखा। उन्होने सिखाया था कि – “एक अज्ञात शक्ति जिसे ईश्वर कहते हैं, संकट के समय उस पर विश्वास करने वाले लोगों की अद्भुत सहायता करती है।“

गुरु का दिया मंत्र और प्रथम गुरु माता-पिता की शिक्षा, आइंस्टीन को प्रतिकूल परिस्थिती में भी आगे बढने के लिये प्रेरित करती रही। उनके विचारों ने एक नई खोज को जन्म दिया जिसे सापेक्षतावाद का सिद्धान्त (Theory of Relativity; E=mc^2) कहते हैं। इस सिद्धानत का प्रकाशन उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका “आनलोन डेर फिजिक” में हुआ। पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों और बुद्धीजीवियों पर इस लेख का बहुत गहरा असर हुआ। एक ही रात में आइंस्टीन विश्वविख्यात हो गये। जिन संस्थाओं ने उन्हे अयोग्य कहकर साधारण सी नौकरी देने से मना कर दिया था वे संस्थाएं उन्हे निमंत्रित करने लगी। ज्युरिक विश्वविद्यालय से भी निमंत्रण मिला जहाँ उन्होने अध्यापक का पद स्वीकार कर लिया।

आइंसटाइन ने सापेक्षता के विशेष और सामान्य सिद्धांत सहित कई योगदान दिए। उनके अन्य योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांतम, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीक्रीत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है। सन् 1919 में इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी ने सभी शोधों को सत्य घोषित कर दिया था। जर्मनी में जब हिटलरशाही का युग आया तो इसका प्रकोप आइंस्टाइन पर भी हुआ और यहूदी होने के नाते उन्हे जर्मनी छोङकर अमेरीका के न्यूजर्सी में जाकर रहना पङा। वहाँ के प्रिस्टन कॉलेज में अंत समय तक अपनी सेवाएं देते रहे , और 18 अप्रैल 1955  को स्वर्ग सिधार गए .

ईश्वर के प्रति उनकी अगाध आस्था और प्राथमिक पाठशाला में अध्यापक द्वारा प्राप्त गुरु मंत्र को उन्होने सिद्ध कर दिया। उनका जीवन मानव जाति की चीर संपदा बन गया। उनकी महान विशेषताओं को संसार कभी भी भुला नहीं सकता।

हम इस महान वैज्ञानिक को शत-शत नमन करते हैं.

आपकी ज़िंदगी बदलेगा

me om aaj apko ye batana chahta hu ki aap ki jindgi kon badl sakta h tu iye.........
Sandeep Maheshwari